बुंदेली भाषा को देश की आठवीं अनुसूची में गौरव मिलना ही चाहिये


                                    0कैलाश मड़बैया
एक लम्बे अरसे बाद मध्यप्रदेश की विधान सभा ने 24फरवरी 12 को एक अषासकीय संकल्प के द्वारा मध्यदेश के हृदय प्रदेश बुंदेलखण्ड की मातृभाषा को उसे अपना खोया हुआ गौरव प्रदान करते हुये, अनुशंसा की कि भारत सरकार बुंदेली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मानजनक स्थान प्रदान करे। आश्चर्य यह है कि बुंदेली से कमतर अनेक भाषाओं को जब आठवीं सूची में स्थान मिल चुका है,उन 22 भाषाओं में बोर्डो,संथाली आदि तक सम्मिलित हो सकतीं हैं तो देष के सर्वाधिक बड़े क्षेत्र और करोड़ों की संख्या में बोलने वालों की संख्या होते हुये भी बुंदेली को सम्मानजनक स्थान नहीं मिलना लोकतंत्र पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है- भले ही अन्य 38 भाषायें अभी विचारार्थ लम्बित हों।   

 

 उत्तर प्रदेश विधान सभा में मायावती ने चार टुकड़ों में विभाजन सहित,बुंदेलखण्ड प्रान्त बनाने का प्रस्ताव पारित कराकर जहॉं अधूरा,अपरिपक्व और राजनैतिक सोपान बनाने का ताना झेला था वहीं मध्य प्रदेश की विधान सभा के बुंदेली भाषा को, अनुमोदन करने के कदम की सर्वत्र प्रसंषा हो रही है। दरअसल न तो यह राष्ट् भाषा हिन्दी को कम करने का कारण हो सकता है और न ही यह मध्य देष की अन्य लोक भाषाओं को प्रभावित करता है। वस्तुस्थिति यदि हम देखें तो भोपाल के ही ऑचलिक क्षेत्रों में, विदिषा, रायसेन, नर्मदापुरम, सीहोर, राजगढ़ आदि जिलों में ,या जबलपुर, ग्वालियर संभाग के जिलों में देखें- तो वहॉं आंशिक बोलीगत परिवर्तन को छोड़ते हुये, लोग भाषा वही बुंदेली बोलते है जो सागर संभाग के जिलों के लोग। प्रचलित बुझउअल है कि ‘भेंस बंधी है ओरछा पड़ा होषंगाबाद,लगवैया है सागरै ,चपिया रेवा पार’। लाल कवि की सत्रहवीं सदी का दोहा सभी की जुवान पर है-‘इत जमुना उत नर्मदा, इत चम्बल,उत टोंस’इसलिये इस क्षेत्र में बुंदेली बोलने वालों की संख्या की गणना सागर, जबलपुर, ग्वलियर, भोपाल और झॉंसी संभाग के जिलों के बुंदेली बोलने बालों की कुल मिलाकर ,आज लगभग पॉच करोड़ के आसपास पहुॅंच रही है। जो 1894-1923 के वर्षों में ग्रियर्सन के भाषायी सर्वे में बुंदेली बोलने वालों की संख्या ढ़ाई करोड़ की ही पुष्टि करती है। आजादी के बाद से आज तक तो भाषायी सर्वे हुआ ही नहीं। जहॉं तक क्षेत्रफल का प्रश्न है वह तो घटने बढ़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता। पूर्ववत लगभग 183479 वर्ग किलो मीटर ही बुंदेली का क्षेत्र है जो अनेक यूरोपियन देषों से भी अधिक और भारत की अन्य लोक भाषाओं से काफी अधिक है।                                     जहॉ तक प्राचीनता का प्रश्न है यदि हम और ऐतिहासिक या पौराणिक प्रमाण न भी जुटायें तो जो‘दिन की तरह यह साफ है’ कि1182 में महाकवि जगनिक द्वारा रचित महाकाव्य ‘आल्हखण्ड’, बुंदेली में ही था। इस हिसाब से एक हजार साल से अधिक उमर बुंदेली की है ही।यह भी सत्य है कि यकायक कोई भाषा महाकाव्य लिखने के योग्य नहीं होती कम से कम सौ दो सौ साल पहले से बुंदेली का चलन रहा होगा इस तरह चंदेल काल के अभ्युदय से बुंदेली का प्रारंभ माना जाता है।... तो डेढ़ हजार वर्ष पुरानी है यह बुंदेली भाषा । भले ही नाम तब विंध्यवाटवी जैसा कुछ रहा होगा। क्योंकि विंध्याचल से ही विंध्येलखण्ड....बुंदेलखण्ड बना और विंध्येली से बुंदेली बना। तुलसीकृत रामचरित मानस में 40प्रतिषत बुंदेली षब्द हैं। दरअसल आज यह बताने की आवष्यकता इसलिये पड़ रही कि लोग बिना इतिहास जाने, इसे हिन्दी का बिगड़ा हुआ रुप कह उठते हैं। इतना ही नहीं बुंदेली के स्वतंत्र विकास के प्रमाण यह हैं कि  1793 में सबसे पहले विलियम कैरे ने भारत आकर अपना भाषायी सर्वेक्षण प्रस्तुत किया था और अपनी 33 भाषाओं की सूची में बुंदेली भी सम्मिलित की थी तथा नमूना भी प्रस्तुत किया था। इसके बाद 1833-1843की मध्यावधि में मेजर रावर्ट लीच ने इस मध्य बुंदेलखण्डी क्षेत्र की हिन्दवी बोली का व्याकरण तैयार किया था। इतना ही नहीं 400वर्ष बुंदेली मध्यदेश यानी बुंदेलखण्ड की राज भाषा रही है।....और जब आज राज भाषा हिन्दी यौवनावस्था में ही वैधव्य की ओर मुड़ गयी हो, वैष्वीकरण व पाष्चात्य के प्रभाव से हिंगलिष बनने लगी हो, तो हमें अपनी मूल लोक परम्परा की असलियत से रुबरु होते ही रहना चाहिये। क्योंकि भाषा केवल अभिव्यक्ति का साधन मात्र नहीं, यह हमारी सांस्कृतिक विरासत की साक्षी और वाहक भी होती है। फिर यदि हमारी संस्कृति खोगई तो हमारी पहचान और अस्मिता ही क्या रहेगी? इसीलिये कहा जाता है कि भारत लोकॉचलों,लोक संस्कृतियों ओर लोक भाषाओं का ही समुच्चय है और यही हमारी एकता है,ताकत है,पहचान है।                         
बुंदेली संस्कृति व साहित्य-
बुंदेली साहित्य का सृजन अत्यंत प्राचीन है। बुंदेली भाषा को वेदों के संस्कार मिले हैं। इसकी अपनी हिंदवी लिपि ,अब देवनागरी ही है। लगभग डेढ़ हजार वर्ष से भी अधिक पुराना सृजन बुंदेलखण्ड में मिलता है। पहले मौखिक परम्पराओं में फिर लिखित में । पश्चिमी हिन्दी के अन्तर्गत खडी बोली,बॉगरु,बृज,कन्नौजी ओर बुंदेली आतीं हैं। अतः जिस खडी बोलीसे आज की हिन्दी निकली वह बुंदेली की ही सहोदरा है। अतः यह भ्रम निरर्थक है कि बुंदेली हिन्दी की बिगड़ा हुआ रुप है या यह ग्रामीणों की बोली है वरन् आज की हिन्दी में बुंदेली के अनेक शब्द आये हैं, आ रहे हैं। रामचरित मानस पर न केवल 12वीं सदी के बुंदेली आल्हखण्ड का प्रभाव पड़ा वरन् बुंदेली कवि तुलसीदास द्वारा बंदेलखण्ड के चित्रकूट में वह रची गई। 9वीं सदी के पूर्व यहॉ आदिवासी संस्कृति रहीं ।चंदेलों ने उनसे संघर्ष किया और राज काज जमाया। 11वीं सदी के बाद का सबसे बड़ा मौखिक लोक महाकाव्य आल्हखण्ड आज की हिन्दी का भी पहला महाकाव्य कहलाता है जो बनाफरी बुंदेली में ही लिखा गया। अनकानेक लोकगीत बुंदेली साहित्य के परिचायक है। राछरों,बीतकों, गाथाओं,चरितों ,बावनियों और गाहों  आदि में अनेक काव्य सुरक्षित बुंदेली में हैं। बुंदेली मध्यकाल में यहॉं की राज भाषा रही है। अनेक रजाज्ञायें, सनदें, बीजक,पत्र,शिलालेख बुंदेली भाषा के प्रमाण है। प्रंबंधात्मक परम्परा में जगतराज विजय, अब्दुल समद की लड़ाई,वीरसिंह देव चरित,रतनबावनी, छत्रसाल बावनी, झाॉसी कौ रायसी आदि। पर  इनमें राजाओं पर केन्द्रित आख्यान वर्णित होते रहे। इनके साथ गाहा और गाथा की परम्परा मध्यकाल में खूब चली।  सुरहिन की गाथा, मथुराबली की गाथा और धॉधू की गाथायें आदि कालीन हैं। इनके साथ राछरों की परम्ंपरा बुंदेली में प्रचलित रही। इनमें ममत्व,स्नेह, श्रंगार, करुणा और परम्पराओं की मानवीय परम्परायें सतत बनी रहीं यथा ‘कजरियन कौ राछरौ’ ,‘चंद्रावलि कौ राछरौ’ आदि।यह प्रगीत काव्य की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। इनमें लोक विश्वास की प्रचुरता और मिथकीय परम्परायें ही मुख्य थीं। गीत रचना के रुप में आदि काल से लोक गीतों में अत्यधिक सृजन हुआ है। दिवारी गीत,राई गीत, फाग गीत,विवाह गीत जैसे अनेकानेक संस्कार गीत अपने छांंदसिक आधारों के लिये प्रचलित रहे हैं। इनमें अत्यंत विस्तृत दायरा काव्य सृजन का रहा है। कतिपय लोकगीतों के रचनाकार भी जाने गये यथा-प्रिया सखी,चैनदास,माधवसिंह,रुपनारायण,मोहनदास,दुर्गालाल,सुखदेव आदि उल्लेखनीय हैं।बुंदेली राजदरवारों के राजकवियों ने मध्यकाल में चरित,पौराणिक आख्यान,लोक प्र्रकृति के लोककाव्य में ग्राम्य लौकिकीकरण हुआ है। यह बुंदेली क्षेत्र का सृजन ग्यारहवीं से सत्रहवीं सदी के काल का रहा है।इनमें विष्णुदास आदि प्रमुख हैं।                रीतिकालीन कवियों में भी लक्षण ग्रंथ,लोक काव्य बहुत रचे गये जिनमें कतिपय कवि तो बुंदेली के होते हुये भी हिन्दी साहित्य में स्थापित हो चुके हैं।यथा कवि केशवदास,पदमाकर, बिहारी, लाल,रायप्रवीण, ठाकुर, शिवनाथ,प्राणनाथ आदि आदि। इनकी मूल प्रवृत्ति बुंदेली ही रही पर इन्हें बृज के तो कभी खड़ी हिन्दी के खाते में डाला जाता रहां। हॉं इसमें कोई शक नहीं कि ये सभी अपने साहित्यिक सृजन के प्रभाव के कारण मूल धारा में जुड़े और साहित्यिक इतिहास में मील के पत्थर बन गये। यों तो बुंदेलखण्ड में जन्में,पले,बढ़े और सृजनरत रहे तुलसीदास को सम्पूर्णरुप से अवधी के खाते में जोड़ लिया गया जब कि रामचरितमानस में अवधी के साथ अधिकॉष बुंदेली के शब्द हैं।उन्नीसवीं सदी में बुंदेली का सृजन चरमपर हुआ जिसका श्रेय ईसुरी,गंगाधर व्यास और ख्यालीराम की त्रयी को है। इनका सृजन पूर्णतः बुंदेली को समर्पित रहा और जिस मानक बुंदेली में इन्होंने सृजन किया उसका ही प्रभाव है कि इनका काव्य सम्पूर्ण जनमानस का कण्ठहार बना रहा। फड़ साहित्य के माध्यम से गंगाधर व्यास आदि ने बुंदेली काव्य को लोकप्रिय बनाये रखा तो ईसुरी की फागें श्रंगार के माध्यम से जीवन को उल्लास और उष्मा से उर्जावान बनाने में कामयाब रहीं। ईसुरी ने जीवनदर्शन दिया तो हर विधा की फागें गाकर बुंदेली को शौष्ठव भी प्रदान किया। इनके बाद तो अनेक कवियों ने अपनी मातृभाषा बुंदेली को भाषा-सम्मान देकर सृजन किया और बुंदेली की श्रीवृद्धि होने लगी क्यांकि अब तक छपाइ्र्र की सुविधा पनप चुकी थी। खड़ी हिन्दी को परिनिष्ठित बनाकर मानक स्वरुप दिया जाने लगा था। स्वतंत्रता संग्राम में यद्यपि हिन्दुस्तानी और लोक भाषाओं में जनपदों को आजादी की क्रान्ति के लिये तैयार किया जाने लगा था जिसमें भाषा कम, राष्ट्ीयता उन्हीं की भाषा में पिलाई जाना ही लक्ष्य था इससे निष्पक्षरुप से बुंदेली को अपना रंग मिलने से सहज वातावरण बनने लगा था। घंश्यामदास पाण्डेय,छैल,घासीराम व्यास, नरोत्तमदास पाण्डे फिर बाद में रामचरण हयारण मित्र,चतुरेश,षिवानंदमिश्र बुंदेला आदि आदि अनेक कवि उभरकर सामने आ चुके थे। उन्नीसवीं सदी में बुंदेली में भी काव्य के विषय युगानुकूल होने लगे थे जिनमें ंस्वतंत्रता के साथ समाज सुधार,प्रकृति,पर्यावरण ,बाल विवाह, विधवा विवाह,हरिजन उद्धार,धार्मिक सदाशयता आदि जुड़ने लगे थे। बीसवीं सदी में तो कविसम्मेलन प्रारंभ भी हो चुके थे और स्थानीय भाषाओं में श्रोताओं को अपने गीत अपनी भाषा में सुनने की ललक बढ़ने लगी थी।हॉं,बुंदेली गद्य में अवश्य मध्यकाल के शिलालेख, पत्राचार, बीजक,दस्तावेज आदि के अतिरिक्त कुछ अधिक उपलबध नहीं हो रहा था। यद्यपि बुंदेली में गद्य बिल्कुल नहीं लिखा गया हो सो बात नहीं थी। इसका सोदाहरण उल्ल्ेख मैं अपनी कृति ‘बॉंके बोल बंदेली के’एवं ‘मीठे बोल बुंदेली के ’में विस्तार से कर चुका हूॅं। ंसंक्षेप में हेमचंन्द्र शब्दानुशासन, शौरसेनी में पदम पुराण,आख्यान,प्राणनाथ के प्रणामी प्रवचन,अक्षर अनन्य का अष्टांग योग, वंशीधर की दस्तूर मल्ल्कि,गंगाराम मिश्र की चिंतामणि प्रश्न,रसिकमाल की अनन्य अलि, मीनराज प्रधान की हरितालिका कथा,नवलसिंह प्रधान की भारत वार्तिक आदि कृतियॉं बुंदेली गद्य में ग्यारहवीं से सत्रहवीं सदी के दौरान सृजित हुईं। बुंदेली लोक कथाओं का तो विस्तृत भंण्डार है।बुंदेली नाटक और स्वॉंग भी मिलते हैं।यह सही है कि विदेशी मुगलों व अंग्रेजो के आक्रमणों एवं समय की सियासत के कारण बुंदेलखण्ड की तरह बुंदेली भाषा भी टूटी,बटी और विखरी इससे बोली जैसी बन कर रह गई इससे एक भरपूर संस्कृति के विलुप्त होने के आसार नजर आने लगे। यद्यपि यह न तो संभव है और न उचित। हालॉंकि जैसा मैं बता चुका हूॅ कि साहित्य सृजन कभी नहीं रुका पर प्रभावित अवश्य हुआ.।                आज आवश्यकता है,बुंदेली जो क्षेत्रीय प्रभावों के कारण भदावरी,पंवारी,खटोला, बनाफरी, गोंण्डी आदि आदि विविध बोलियों में विखरी है इन सभी रुपों को सम्मिलित कर मानकीकरण किया जावे और गद्य साहित्य में सृजन कर बुंदेली की श्रीवृद्धि की जावे। बुंदेली में साहित्य की अन्य विधाओं में भी सृजन किया जाना समीचीन होगा। जैसे मराठी, राजस्थानी, गुजराती आदि में आजादी के बाद निरंतर सृजन किया जा रहा है। पुराने विषय बदल रहे हैं, शैली बदल रहीं हैं, प्रतिमान बदल रहे हैं-यह सब पं्रासंगिकतायें बुंदेली मे ंआना अवश्यक है। बुंदेली का दैनंदिन उपयोग बढ़ना चाहिये।हिन्दी से बुंदेली की कोई प्रतिद्वंदिता नहीं है पर हिन्दी को व्यापक बनने के लिये बुंदेली जैसी लोक भाषाओं से अभी बहुत कुछ लेना शेष है।अतःजडें मजबूत बनीं रहें इसलिये बुंदेली की द्रढता आवश्यक.है। यह एक वास्तविकता है कि हिन्दी में शिक्षा होने और पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से बुंदेली का प्रभाव घटा है,प्रयोग में व्यवहार में बुंदेली का चलन कम हो रहा है पर अपनी संस्कृति सुरक्षित रहे इससे बुंदेली का चलन व संरक्षण बनाये रखना भी आवश्यक है।1930 में इसीलिये ओरछेश ने बुंदेली को फिर एक बार राज भाषा घोषित किया था। पं0बनारसीदास चतुर्वेदी आदि ने ‘मधुकर’ के माध्यम से बुंदेली का आन्दोलन भी चलाया था पर आजादी के बाद सब तिरोहित हो गया। राष्ट् भाषा और मातृ भाषा दौनों संरक्षित रहना चाहिये जैसे भारत माता और जन्म देने बाली माता दौनों का महत्व आवष्यक है। अखिल भारतीय बुंदेलखण्ड साहित्य एवं संस्कृति परिषदृ  भोपाल ने बुंदेली के विविधरुपों में गद्य की प्रथम कृति ‘बॉंके बोल बंदेली के’ और बाद में बुंदेली के ललित निवंधों का ग्रंथ ‘मीठे बोल बुंदेली के’प्रकाशित कर बुंदेली की सामर्थ्य और संभावनाओं को उजागर कर ऐतिहासिक कार्य किया है।बुंदेली की सामर्थ्य को देखते हुये हिन्दी दिवस-2009पर,राष्ट्ीय साहित्यअकादमी नई दिल्ली ने बुंदेली के प्रतिष्ठित साहित्यकारों का बुंदेली भाषा अधिवेशन कर बुंदेली को पहली बार राष्ट्ीय पहचान दी है। वर्तमान दशा और दिशा देखते हुये अखिल भारतीय बुंदेलखण्ड साहित्य एवं संस्कृति परिषद् ने दि. 5 एवं 6 दिसम्बर 2009 और 3,4अप्रेल 2010को बुंदेलखण्ड की प्राचीन राजधानी व बुंदेली के उर्जा केन्द्र ओरछा में बुंदेली के भाषा -विदों एवं रचनाकारों की आठ आठ सत्रों में,दो दिवसीय सभायें बुंदेली के मानकीकरण पर सम्पन्न की गईं जिसमें घ्वन्यत्माक, व्याकरण,समाजिक संरचनात्मक परिवेश और समस्त उपबोलियों के आधार पर गंभीरता से विचार किया गया। विश्वविद्यालयों के भाषाविद्ों  आदि की एक 5सदस्यीय कमेटी का गठन किया गया था जिसने विचार, सम्पर्क और मंथन कर अपनी क्रियान्वयन रिपोर्ट कालिंजर कार्यशाला में प्रस्तुत की थी। मानकीकरण का कार्य दो कार्यषालाओं द्वारा सम्पन्न किया गया। बुंदेली के ललित निबंधों का ग्रंथ ‘नीके बोल बुंदेली के’  इन्ही प्रयासों की परिणति है। आजादी पर षौर्य के महाकाव्य ‘जय वीर बुंदेले ज्वानन की ’ और बुंदेली में उपन्यास‘इदन्न्मम’ आदि मील के पत्थर जैसे हैं। कतिपय विश्वविद्यालयों/ संस्थाओं द्वारा बुंदेली सृजन का महत्वपूर्ण्ा कार्य किया जा रहा है और अपेक्षायें भी बुंदेली रचनाकारों से सृजन के माध्यम से मानकीकरण की की जा रहीं हैं।                 निष्चित ही वैष्वीकरण का प्रभाव बुंदेली संस्कृति पर व्यापकरुप से पड़ा है अतः आवष्यकता है पाष्चात्य की आर्थिक असफलताओं से सीखकर आगे बढ़ने की। अपनी पहचान बनाने की ललक और अपनी संस्कृति संरक्षित रखने की। बुंदेली संस्कृति का क्षरण रोकने के लिये संरक्षण आवष्यक है इसलिये क्रेन्द्र षासन को बुंदेली को आठवीं अनुसूची में यथाषीघ्र स्थान देना ही चाहिये जिससे बुंदली संस्कृति अपनी अभिव्यक्ति बनाये रख सके। अपनी भाषा, भेष,भोजन,भजन,भावना आदि को बचायें,प्रासंगिक बनायें विकसित भी, पर पहचान बनाये रहें। वैष्वीकरण के इस युग में बुंदेलखण्डियों को स्वंय दक्षिणी, बंगाली, मराठी आदि की तरह अपनी संस्कृति के ,भाषा के स्वाभिमान को दैनंदिन जीवन में सचेत हो प्रयोग ही नहीं सृजन भी गद्य,पद्य,निवंध, कहानी,अनुवाद के क्षेत्र में,अपने चैनल, अपने पत्र-पत्रिकाओं,फिल्म एवं अन्य विधाओं में निष्ठा पूर्वक और अधिक सषक्त एवं संगठित  हो कार्य करना चाहिये। केवल अतीत के गुणगान नहीं वर्तमान भी अतीत से ओतप्रोत हो ,भविष्य भी गौरवषाली बनाना है वरना वह दिन दूर नहीं जब महान बुंदेली संस्कृति और भाषा समाप्त होने के कगार पर पहुॅच जायेगी और तब हमसे बड़ा कृतज्ञ्न कौन होगा?, भारत सरकार इसे आठवीं अनुसूची में स्थान दे अन्यथा क्या हमारी भावी पीढ़ियॉं हमें इस सांस्कृतिक विलुप्तता के लिये माफ कर सकेंगीं ?                                  

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